सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

आखिरी पत्र


आपसे अलग होने की कल्पना मैं पहले भी किया करता था और उसके बाद अपने चारो ओर फैले इस बंधन से घबराने लगता था, पर आपके बातों से मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास फिर लौट आता था। अब मेरे साथ ना घबराहट है, ना आत्मविश्वास और ना आप.....

मुझे पता नहीं कि मनुष्य को समय के साथ किस तरह के परिवर्तन अपने व्यवहारों और विचारों में लाना चाहिए, काश मैं आपसे सीख पाता।


और दुःख कि बात करें तो मुझे दुःख नहीं है, हाँ थोड़ा-बहुत आश्चर्य जरुर है। क्या हमारे संबंध कि डोर इतनी कमजोर थी कि व्यवहारिक जीवन कि में आए एक परिवर्तन ने आपको मुझे पहचानना, भी मुनासिब नहीं लग रहा है।


मगर मेरा मानना है कि मनुष्य अपने सभी चीजों में बदलाव ला सकता है परन्तु अपने आत्मा में आकस्मिक परिवर्तन लाना मानव के वश के बाहर की बात है।
मैं चाहता हूँ कि अपने अंदर छुपे इस दुःख और आश्चर्य को निकाल दूं मगर आप ऐसा होने नहीं देंगी, क्योंकि कुछ दिनों पहले जब मैं आपसे कहा करता था कि  –आप मुझे पहचानने से भी इन्कार कर देंगी तो आप मुझसे कहतीं –  “ आपका सोच गलत है
लेकिन अब तो स्पष्ट है कि किसका सोच सही था।

कुछ इस तरह होता कि रुह निचोड़कर यादों कि एक-एक बूँद को अलग कर दिया जाए, पर काश कि ऐसा हो पाता ....अब ये यादें मुझे दलदल जैसा लगता है, मैं इनसे बाहर आने की जितनी कोशिश करता हूँ ...ये मुझे उतना डुबोता जा रहा है.....
मैं ढूंढता हूँ उन्हे खाली पन्नो में
लिखा हुआ खून पानी में बदल रहा है....

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