गुरुवार, 7 मार्च 2013

मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....

मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....

ना कोई चाह है मन में, ना कोई आह है मन में
दुनिया की उठती उँगलियों को प्रोत्साहन समझकर,
अपनों से छुटते हाथों को दीक्षांत समझकर....

मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....


जीवन की धुरी पर उम्र के पहिए को घिसते हुए,
खुद को ढ़ूढ़ने के लिए खुदी में पिसते  हुए....
अंधेरो से भागकर....रौशनी का दरवाजा खटखटाने...

मैं निरंतर बढा जा रहा हूँ.....

पवित्रता के चोंगे से थककर.... असली चेहरा लिए,
सच को साथ लेकर ... दृढ़ता लिए....
मन में जीत का हौसला बनाकर,

मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....

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