मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....
ना कोई चाह है मन में, ना कोई आह है मन में
दुनिया की उठती उँगलियों को प्रोत्साहन समझकर,
अपनों से छुटते हाथों को दीक्षांत समझकर....
दुनिया की उठती उँगलियों को प्रोत्साहन समझकर,
अपनों से छुटते हाथों को दीक्षांत समझकर....
मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....
खुद को ढ़ूढ़ने के लिए खुदी में पिसते हुए....
अंधेरो से भागकर....रौशनी का दरवाजा खटखटाने...
मैं निरंतर बढा जा रहा हूँ.....
पवित्रता के चोंगे से थककर.... असली चेहरा लिए,
सच को साथ लेकर ... दृढ़ता लिए....
मन में जीत का हौसला बनाकर,
मैं निरंतर बढ़ा जा रहा हूँ.....
bahut aache bhai...
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेखन !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर स्वानुभूति
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