गुरुवार, 1 मार्च 2012

स्मृति वृक्ष


बचपन में जब उस पेड़ को देखता तो उसकी विशालता को देखकर मन में कौतूहल होता। उस वृक्ष के डाल पे बचपन कि कई स्मृतियां चिपकी थी। कभी उस पे चढ़ता भूत, तो कभी बंदर का भ्रम देने वाली आकृतियों के कारण रात में उस पर देखने का साहस मैं नहीं करता था।


गर्मी के दिनों में तो उस पेड़ के आसपास बच्चों का झुण्ड लगा रहता। संपूर्ण वृक्ष अपने फूलों के कारण लाल रंग मे सारोबार रहता, उस दृश्य कि मोहकता आज भी मेरे मन को पूलकित कर देती है। उसके गिरे हूए फूलों के बीज से घिरनी बनाकर खेलना बड़ा अच्छा लगता।

जब उस वृक्ष पर रुई आने लगते तो हमारी उत्सुकता दुगूनी हो जाती और पूरे वृक्ष को रुई के बादल में बदलते देखकर मन रोमांचित हो उठता था। और जब तेज हवा रुई को उड़ाते तो ऐसा लगता मानो बर्फ गिर रही हो।

चाँदनी रातों में चाँद डालियों पर अठखेलियां करता, पत्तो के साथ लुका-छिपी खेलता और फिर वृक्ष की गोद में सो जाता।

रात के अंधेरे में जब वृक्ष जुगनूओं से झिलमिलाता तो वो नजारा सुकून भरा होता था। एक छोटा आकाश जिसमें असंख्य जीवित प्रकाश टिमटिमाते रहते। उन छोटे -छोटे जुगनूओं को टिमटिमाते देखना अच्छा लगता। 

आज उस छोटे आकाश को जमीन पर टूकड़ों में देखा तो बरबस आँखे भींग गई। अब वो तारे भी कहीं नजर नहीं आते.... चाँद भी तन्हा है, और रातों का अंधेरा भी बढ़ गया है।

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