मैं उसका हाथ थामे खड़ा हूँ.. चाँद की मद्धम रौशनी उसकी आँखों की चमक और बढ़ा रही है। मैं खामोश हूँ पर लाखों सवाल हैं जो उसकी लहराती लटों में उलझ उलझ कर मुझे बेचैन कर रही हैं... मुझे जवाब नहीं मिलता है और मैं भी उसकी सुनहली लटों में उलझ जाता हूँ।
मेरी बेचैनी को महसुस कर वो मेरी तरफ देखती है और मेरे सारे सवालों को पढ़ लेती है... उसकी आँखों की चमक अब बूंदें बनकर लुढ़कने को आतुर हैं। मैं देखता हूँ की उनमें चाँदनी की चमक से ज्यादा मेरी यादें घुली हैं.... ।
अब मेरे सवालों को जवाब की जरुरत नहीं है ... लाखों सवालों का जवाब बस एक बूंद ने दे दिया।
मैं चुप हूँ.. वो अब भी मेरी आँखों में झांक रही है मानो पूछ रही हो अब भी कोई सवाल बाकी है ?
हम हाथ थामे नदी की भींगी रेत पर चलने लगते है .... किनारे की भींगी-भींगी रेत देखकर वो कहती है- “ लहरें क्यों किनारों को बिना कुछ कहे स्पर्श कर के लौट जाती है.. और किनारों के पास सिर्फ भींगी यादें छोड़ जाती है…. ”
मैं लहरों को देखकर कहता हूँ- “ लहरें लौटती नहीं हैं..... लहरें तो किनारे को अपना सर्वस्व सर्मपण कर देती है.....।
वो अपना सर मेरे कंधो पर टिका देती है.... और मैं चाँद को देखने लगता हूँ.....
awesome!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंवाह.....
जवाब देंहटाएंखूबसूरत!!!!!
अनु
धन्यवाद....
हटाएंअनु जी..
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/10/1.html
जवाब देंहटाएंधन्यवाद..
हटाएं्बहुत प्यारे अहसासो से सराबोर
जवाब देंहटाएंआदरणीय वन्दना जी ...
हटाएंब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद...
ब्लॉग पर सादर निमंत्रण स्वीकार करें।
blog buletin dwara pahli baar aapke blog tak pahunch paayi. bahut acchha likhte hain. sunder ehsason se sawara apne is kahani ko.
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्द्धन के लिए धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंआभार आपका..
ब्लॉग पर सादर निमंत्रण ...