रविवार, 25 दिसंबर 2011

परिवर्तन

उसका कोई तो नहीं था यहाँ, और यहाँ उसकी खुशी की कोई वज़ह भी नहीं थी। वो मेरे यहाँ काम करने आया था। वो गायों के साथ खेलता, अकेले में गुनगुनाता, और अपने साँवले से चेहरे पर हमेशा मुस्कान लिए रहता था। वो कभी-कभी किसी से गंभीरता से बात नहीं करता था पर उसमें गंभीरता थी। वो याद करता अपनी माँ को, अपने गाँव को पर किसी से कहता कुछ नहीं।


हाँ, वो हँसता भी था पर उसकी हँसी उसके कामो में व्यस्त हो जाती थी। कुछ बातों को लेकर मुझसे ऐसे बात करता जैसे बड़ा अनुभवी हो। उसके आँखों की मायूसी और चेहरे की मुस्कान ने लिखने को विवश किया।

इतनी बातें तब की हैं जब वो मेरे यहाँ आया था। अब उसे यहाँ रहते हुए 4 वर्ष बीत चुके हैं, उसमें आए कुछ परिवर्तन को देखकर मैं हैरान हूँ। मुझे उससे सहानुभूती थी पर उसमे आए परिवर्तन ने मेरी सहानुभूती को परास्त कर दिया। वो भूल गया अपनी माँ को, हद तो तब हो गई जब उसे अपनी माँ के मृत्यू का समाचार मिला तो वो मुस्कुराने लगा। अब उसकी मुस्कान की मासूमियत भी जाती रही।

मैने जब उसमें आए परिवर्तन का कारण का पता लगाया तो और भी हैरानी में पड़ गया। बीते 3-4 वर्षो में उसने व्यस्कता की पहली सीढ़ी पर कदम रखा था और इसी परिवर्तन ने उसकी मासूमियत को उससे छीन लिया। पर लोग कहने लगे हैं की अब वो बड़ा हो गया है …….

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

संस्कारो का कैमरा

आपकी तस्वीर मीटा नहीं सका इसलीए धुधंली करने के प्रयास में लगा हूँ। धुंधली करने के की कोशिस ऐसी-ऐसी है, जो ना केवल आपकी तस्वीर बल्कि मेरी रुह को भी धुंधली कर रही है। मैंने अपने आप को बचाने के लिए आपकी यादों के दामन को छोड़ना मुनासिब समझा। अगर इन प्रयासों को छोड़कर मैं अपने विश्वास पर अटल रहता तो आज मैं जीवित नहीं होता। जिंदा रहने के लिए मैं उन कार्यो के लिए विवश हुआ जो मेरे व्यक्तित्व और नैतिकता के प्रतिकूल था।

आपका साथ सिर्फ साथ नहीं था इस साथ के कई मायने थे। आपका मेरे पास होना मेरे जीवन के सार्थकता को साबित करता था। आपने मेरे लिए हमेशा एक अदृश्य कैमरे का काम किया और वह कैमरा जब तक मेरे साथ रहा मैंने अपनी गलतियों को दिन-ब-दिन सुधारा, उल्टी-सीधी हड़कतों को नियंत्रण में किया, सही शब्दों का इस्तेमाल किया। इन सभी बातों के पीछे मेरी कोई भूमिका नहीं थी, भूमिका थी तो सिर्फ आपकी आँखों की जो मेरे साथ अदृश्य कैमरे की भांति रहती थी। आपने अपनी आँखें मुझसे फेर ली और मेरा कैमरा भी मुझसे दूर हो गया। इसके बाद धीरे-धीरे मैं अपने व्यक्तित्व की उँचाईयों से सरकने लगा।

आपके साथ होने का भ्रम ही मुझे पूलकित कर देता और मुझे ईश्वर, सत्य, सद्कर्म में विश्वास बढ़ा देता था। मेरी मौलिक व्यवहार इन सब बातों में नहीं था, मैं तो सिर्फ आपके कारण ही शुद्धता के चरम पर पहुँचने की कोशिस में लगा था। आपके साथ ने संस्कारो की आदत लगा दी जो कि मेरे व्यवहार में शामिल हो गया। अब ये संस्कार मुझे आप ही कि तरह पराये लगते हैं, अब इन संस्कारो के साथ रहा तो मुझे अपने प्राणों का मोह छोड़ना पड़ेगा और अगर मेरे प्राण रहते हैं तो मुझे इन संस्कारो को छोड़ना होगा।

आपने इस कमाल से खेला था इश्क की ब़ाजी
मैं अपनी जीत समझता रहा, अपनी हार होने तक

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

भ्रम की वास्तविकता

कोशिश में हूँ की चेहरा साथ दे मेरा, आंखें साथ दे मेरा मगर ये मानने को तैयार ही नहीं, समझने को तैयार ही नहीं। और हो भी क्यों चेहरा और आंखों ने भी तो बीते सालों में मेरा साथ देते देते ये जेहन में बिठा लिया की वो चेहरा कोई दूसरा तो नहीं लगता, मानो मेरा प्रतिबिम्ब था, वो चेहरा भी तो मेरी भावनाओं से अपना रंग बदलता था।


और बीते सालों में मेरी आँखों से उतारा गया हर दृश्य पहले उन्ही आँखों से होकर गुजराऔर अब मै अपनी आँखों से कह रहा हूँ की अब सिर्फ तुम्हे ही देखना है तो मेरी आंखें मानती ही नहीं।

मेरा चेहरा जो मेरी पहचान को समेटकर उसका बन रहा था। तब तो आइना भी झूठा बन रहा था और आज मेरे चेहरे को झूठा  ठहराकर आईने को सच साबित करने का वक़्त आ चुका है।


आंखें और चेहरा को संभलने में वक़्त लगेगा। चलो ये तो संभल ही जायेंगे पर उसका क्या जो अब मेरे अन्दर मेरा ही विरोध कर रहा है। मेरी आत्मा ने मुझे  ही स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है। अब मैं उससे परेशान हूँ और वो मुझसे .... बस में होता तो वो मुझसे आजाद हो जाता।

पर अब मैं उसे भ्रम देने की कोशिश में जुटा हूँ, क्योंकी अब यही भ्रम मेरी वास्तविकता है। मेरे मित्र सामंत जी की एक पंक्ति लिखना अब जरूरी हो गया है –

मैं भी उसी रंग में रंग गया हूँ
    अगर कभी था तो अब मैं पवित्र नहीं

रविवार, 18 दिसंबर 2011

मान और मानना

उसने कहा और मैने मान लिया, ये बात थी बस हम दोनो की, बिना कोई वाद-विवाद के उसका कहा मान लिया मैंने, जैसा की पिछ्ले ५ वर्षो से मानता आ रहा था।

पर, ना जाने क्यों इस बार के 'मान लेने' में वो सुकुन और आत्मविश्वास नहीं था, थी तो बस बेचैनी। फिर भी मैंने मान लिया।
इस बार के उसके 'कहने' में हमेशा की तरह शालीनता, दुरदर्शीता के साथ-साथ दु:ख और अविश्वास छिपा था।

और इस बार के मेरे 'मानने' में मेरे अंदर आश्चर्य, अधंकार, घबराहट और आंसू छिपे थे। उसकी कही हुई बात के बाद मैं पिछे मुड़ के देखता हूँ और उस मखमली यादों को छुता हूं तो स्पर्श सिर्फ काँटे होते है और अपनी यादों से लहु-लुहान हो कर शर्मीदां हो जाता हूं।


मैंने स्वप्न में ही ह्कीकत को जी कर देखा पर स्वप्न के टूटते ही ह्कीकत का टुट जाना स्वभाविक है। और मैं अब खामोश बैठा हूं। अब खुद से कोई प्रश्न नहीं करता, ना कोई जबाब देता हुं। उसका कहे शब्दों के जहर ने मुझे खुद से अलग कर दिया। फिर भी मैंने उसका कहा मान लिया।
और मिर्जा गालिब की ये पंक्तिया चरितार्थ हो गयी

" दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना "