कोशिश में हूँ की चेहरा साथ दे मेरा, आंखें साथ दे मेरा मगर ये मानने को तैयार ही नहीं,
समझने को तैयार ही नहीं। और हो भी क्यों चेहरा और आंखों ने भी तो
बीते सालों में मेरा साथ देते देते ये जेहन में बिठा लिया की वो चेहरा कोई दूसरा
तो नहीं लगता, मानो मेरा प्रतिबिम्ब था, वो चेहरा भी तो मेरी भावनाओं से अपना रंग बदलता था।
मेरा चेहरा जो मेरी पहचान को समेटकर उसका बन रहा
था। तब तो आइना भी झूठा बन रहा था और आज मेरे चेहरे को झूठा ठहराकर आईने को सच साबित करने का वक़्त आ चुका
है।
आंखें और चेहरा को संभलने में वक़्त लगेगा। चलो ये तो संभल ही जायेंगे पर उसका क्या जो अब मेरे अन्दर मेरा ही विरोध कर रहा है। मेरी आत्मा ने मुझे ही स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है। अब मैं उससे परेशान हूँ और वो मुझसे .... बस में होता तो वो मुझसे आजाद हो जाता।
आंखें और चेहरा को संभलने में वक़्त लगेगा। चलो ये तो संभल ही जायेंगे पर उसका क्या जो अब मेरे अन्दर मेरा ही विरोध कर रहा है। मेरी आत्मा ने मुझे ही स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है। अब मैं उससे परेशान हूँ और वो मुझसे .... बस में होता तो वो मुझसे आजाद हो जाता।
पर अब मैं उसे भ्रम देने की कोशिश में जुटा हूँ, क्योंकी अब यही भ्रम मेरी वास्तविकता है। मेरे मित्र सामंत जी की एक पंक्ति लिखना अब जरूरी हो गया है –
“ मैं भी उसी रंग में रंग गया हूँ
अगर कभी था तो अब मैं पवित्र नहीं “
very strong portrayel of emotions...u r good at writing.this article is power packed with strong words.
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